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आ॒न्त्राणि॑ स्था॒लीर्मधु॒ पिन्व॑माना॒ गुदाः॒ पात्रा॑णि सु॒दुघा॒ न धे॒नुः। श्ये॒नस्य॒ पत्रं॒ न प्ली॒हा शची॑भिरास॒न्दी नाभि॑रु॒दरं॒ न मा॒ता ॥८६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒न्त्राणि॑। स्था॒लीः। मधु॑। पिन्व॑मानाः। गुदाः॑। पात्रा॑णि। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा॑। न। धे॒नुः। श्ये॒नस्य॑। पत्र॑म्। न। प्ली॒हा। शची॑भिः। आ॒स॒न्दीत्या॑ऽस॒न्दी। नाभिः॑। उ॒दर॑म्। न। मा॒ता ॥८६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:86


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - युक्तिवाले पुरुष को योग्य है कि (शचीभिः) उत्तम बुद्धि और कर्मों से (स्थालीः) दाल आदि पकाने के बर्त्तनों को अग्नि के ऊपर धर ओषधियों का पाक बना (मधु) उसमें सहत डाल भोजन करके (आन्त्राणि) उदरस्थ अन्न पकानेवाली नाडि़यों को (पिन्वमानाः) सेवन करते हुए प्रीति के हेतु (गुदाः) गुदेन्द्रियादि तथा (पात्राणि) जिनसे खाया-पिया जाय, उन पात्रों को (सुदुघा) दुग्धादि से कामना सिद्ध करनेवाली (धेनुः) गाय के (न) समान (प्लीहा) रक्तशोधक लोहू का पिण्ड (श्येनस्य) श्येन पक्षी के तथा (पत्रम्) पाँख के (न) समान (माता) और माता के (न) तुल्य (आसन्दी) सब ओर से रस प्राप्त करानेहारी (नाभिः) नाभि नाड़ी (उदरम्) उदर को पुष्ट करती है ॥८६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य लोग उत्तम संस्कार किये हुए उत्तम अन्न और रसों से शरीर को रोगरहित करके प्रयत्न करते हैं, वे अभीष्ट सुख को प्राप्त होते हैं ॥८६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(आन्त्राणि) उदरस्था अन्नपाकाधारा नाडीः (स्थालीः) यासु पच्यन्तेऽन्नानि (मधु) मधुरगुणान्वितमन्नम् (पिन्वमानाः) सेवमानाः प्रीतिहेतवः। पिवि सेवने च। (गुदाः) गुह्येन्द्रियाणि (पात्राणि) यैः पिबन्ति तानि (सुदुघा) सुष्ठु सुखेन दुह्यत इति। दुहः कब् घश्चेति कर्मणि कप्। (न) इव (धेनुः) गौः (श्येनस्य) (पत्रम्) पक्षः (न) इव (प्लीहा) (शचीभिः) प्रज्ञाकर्मभिः (आसन्दी) समन्तात् रसप्रापिका (नाभिः) शरीरमध्यस्था (उदरम्) (न) इव (माता) ॥८६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - युक्तिमता पुरुषेण शचीभिः स्थालीरग्नेरुपरि निधायौषधिपाकान् विधाय, तत्र मधु प्रक्षिप्य, भुक्त्वाऽऽन्त्राणि पिन्वमाना गुदाः पात्राणि भोजनार्थानि सुदुघा धेनुर्न प्लीहा श्येनस्य पत्रं न माता नासन्दी नाभिरुदरं पुष्येत् ॥८६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उत्तमैः सुसंस्कृतैरन्नै रसैः शरीरमरोगीकृत्य प्रयतन्ते, तेऽभीष्टं सुखं लभन्ते ॥८६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालांकार आहे. जी माणसे उत्तम प्रकारे संस्कारित केलेले अन्न व रसांनी शरीर रोगरहित करण्याचा प्रयत्न करतात, ते इष्ट सुख प्राप्त करतात.